वर्ष 1999 में “आवाज” 2001 में प्रभात खबर रांची और बिहार ऑब्जर्वर धनबाद में प्रकाशित
देसी सिकच्छा: अंगरेजी’
(एक व्यंग कविता)
अंगरेज जाइ चुकल हइ
मेंतुक, अंगरेजी पढ़ाइ गेलक
रटाइ रटाइ के हमरा
मातरीभासा छोड़ाइ गेलक।
‘जुग बदलेक फेरें
हाम आइज होस भुलाइ रहल हों
सिसु मंदिरेक जघइएं
रोज “पब्लिक स्कूल” खोइल रहल हों।
असतर भले हेंठ होवे
मेंतुक नाँव – हेवेन, पब्लिक, गार्डेन, सेन्चुरी,
लेंकें काज टिचर से
कि देवेक ओकर मजूरी ?
तिआइग के आस वेतन के
आवे टीचर करेले काम
पढवे हइ त- गीदर- बु”तरुक
‘सिटी’ मानें बाजा, रैट माने दाम ।
रफ्तार जदि एहे रहले, त.
देस तरक्की’ क़र जेते
सिकच्छा जगतें भारत नॉव
पहिल पांति गिनाइ जेते।।