आदिवासी और प्रकृति पर्यायवाची हैं। आदिवासी समाज को यह भली भाँति पता है कि जब तक प्रकृति का सानिध्य है, उनका अस्तित्व बना हुआ है। प्रकृति का स्वस्थ होना उनके जीवन शैली के स्वस्थ होने का संकेत है। आदिवासी संस्कृति में ऐसे अनेक प्रकार के गतिविधियाँ और क्रियाकलाप हैं जो यह दर्शातेबहै कि प्रकृति उनसे अलग नहीं, अपितु उनके ही जीवन का एक अहम हिस्सा है। आदिवासियों के प्रकृति प्रेम के अनेक गतिविधियों में से सबसे प्रमुख ‘सरहुल’ है। सरहुल झारखंड के आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक पर्व है। यह मात्र बसंत ऋतु के आगमन का संकेत नहीं है, जैसा कि अन्य समाज इसे देखते हैं। इस महापर्व के अनुभव के समय जो विधि विधान किए जाते हैं वो अपने आप में बड़ा रोचक और अर्थपूर्ण हैं। जब हम इसे निकट से देखते हैं तो आदिवासी समाज में अंतर्निहित विज्ञान और उनके समृद्ध अवधारणाओं से हमारा परिचय होता है। जो सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ हैं वो मिथ्या या निराधार नहीं हैं।
सरहुल की आस्था की बात करें तो आदिवासी समाज इस प्राकृतिक पर्व को सूर्य और धरती के विवाह के रूप में देखता है। झारखंड में विभिन्न जनजातियाँ हैं और जब हम इनके आस्था और सृष्टि की रचना को देखते हैं तो प्रायः इन सबके दन्तकथा एक समान प्रतीत होते हैं। सभों ने सरहुल को धरती का विवाह सूर्य से होना माना है। जहाँ धरती या पृथ्वी को माँ के रूप में देखा गया है वहीं सूर्य को एक पिता या पुरुष की तरह देखा गया है। विवाह का अर्थ, जीवन के नव सृजन से है।
आदिवासी समाज अपने हज़ारों वर्षों के अनुभव के आधार पर यह समझता है कि यदि पृथ्वी पर जीवन है तो उसमें सूर्य की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। संसार के प्रत्येक जीव जंतुओं को सूर्य से ऊर्जा प्राप्त होती है। झारखंड में सरहुल से पूर्व, पूरी धरती पलाश और सेम्बर के फूलों से लाल हो जाती है। यह लाल रंग यौवन का प्रतीक है। यह संकेत है कि अब सूर्य और पृथ्वी के विवाह का समय आ गया है। फिर विवाह के समय जिस प्रकार पीले हल्दी रंग का महत्व होता है वैसे ही सखुवा के पीले फूल चारों ओर नजर आते हैं। सरहुल का आगमन होने के साथ सखुवा पेड़ की डालियों में फूल आते हैं, नयी कोपलें और नये पत्ते आते हैं। पूरे वातावरण में एक नव जीवन का संचार पतझड़ के बाद देखने को मिलता है। नये फल अंकुरित होते हैं और यह वो समय होता है जब पर्यावरण में एक नयी बहार देखने को मिलती है। चारों ओर हरा रंग नज़र आता है जो नव सृजन का संकेत है। आदिवासी समाज के देशज ज्ञान में, सूर्य और पृथ्वी के सानिध्य के कारण होने वाले अदभुत नैसर्गिक परिवर्तन वह विशेष है।
आदिवासी समाज के दन्तकथा में सूर्य और पृथ्वी के द्वारा होने वाले परिवर्तन को विवाह के समतुल्य माना गया है। सूर्य के कारण ही धरती में नवजीवन का संचार होता है। इसकी तुलना आदिवासी समाज ‘विवाह’ से करता है। जिस तरह विवाह उपरांत नये जीव के सृजन की प्रक्रिया होती है, सरहुल के प्रकृति पर्व में भी सूर्य की ऊर्जा, पृथ्वी में नये जीवन का संचार करती है। ‘फ़ोटोसिंथेसिस’ या प्रकाश संश्लेषण के तकनीकी रासायनिक प्रक्रिया सेआदिवासी समाज भले ही अवगत ना हो किंतु अपने देशज ज्ञान के अन्तर्गत वेभली भाँति जानते थे कि मिट्टी (पृथ्वी), जल और सूर्य के द्वारा ही नया जीवन संभव हो पाता है। इसलिए आदिवासी समाज में विवाह संस्कार एक बेहद महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में से है।
सरहुल में प्रकृति आराधना मात्र विवाह तक सीमित नहीं है। किसी भी गाँव में आप जब पारंपरिक सरहुल मनाते हैं तो आपको एक अलग ही प्रक्रिया देखने को मिलती है। सरहुल के एक दिन पहले पारंपरिक धार्मिक अगुवा पाहन, बैगा इत्यादि सरना स्थल में मिट्टी के घड़े में पानी, पुरखों से संवाद कर के रात भर वहाँ छोड़ आते हैं। अगले दिन धार्मिक अगुवा उपवास के दौरान ही सरना स्थल जाते हैं और घड़े में पानी के स्तर का अवलोकन करते हैं। घड़े में पानी के स्तर के आधार पर उस साल होने वाली वर्षा के विषय में धार्मिक अगुवा भविष्यवाणी करते हैं। यदि घड़े में पानी का स्तर कम होता है तो यह संकेत होता है कि उस वर्ष वर्षा कम होगी। यदि पानी का स्तर यथावत रहता है या कुछ मात्रा में ही नीचे गिरता है तो यह संकेत होता है कि वर्षा ठीक होगी। यह भविष्यवाणी बेतरतीब या निराधार नहीं होता है। धार्मिक अगुवा घड़े के स्तर को देखकर समझते हैं कि वातावरण की वायु में आर्द्रता कितनी है। यदि वायु शुष्क होगी तो वह अधिक पानी सोखेगी और घड़े में पानी का स्तर नीचे जाएगा। वायु के शुष्क होने के कारण और आर्द्रता की कमी के कारण वर्षा सीमित होगी। वहीं यदि वातावरण की वायु में आर्द्रता अधिक होगी तो वह घड़े के पानी को कम सोखेगी। यह एक सामान्य अवलोकन आधारित विज्ञान है किंतु बेहद तर्कपूर्ण।
धार्मिक अगुवा उसके बाद पुरखों से जो संवाद करते हैं वह ‘जियो और जीने दो’ की अनूठी मिसाल है। वे सूर्य, धरती और प्रकृति आदि शक्ति से सरना में एक ही स्थान में चक्र अनुक्रम में उल्टी घड़ी की दिशा में पृथ्वी के सभी जीव और निर्जीव के लिये ‘गोहराते’ हैं। इस चक्रानुक्रम में धार्मिक अगुवा 360 डिग्री पूरा करते हैं। हर दिशा में वे पुरखों और आदि शक्ति को याद करते हुए खेत खलिहान, गाय गरु, पेड़ पौधे, नदी नाले, जंगल पहाड़, बरखा, पशु-पक्षी, चाँद तारे इत्यादि सभी के लिये स्नेह की विनती करते हैं। गाँव को अनिष्ट से बचाने के लिए भी विनती होती है। किसी भी प्रकार के आपदा से सभी जीव और निर्जीव सुरक्षित रहें, इसके लिए इसी विनती में धार्मिक अगुवा अनुनय विनय करते हैं। इस प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान अपने आप में अनोखा है। आदिवासी समाज ऐसा है जहाँ एक व्यक्ति विशेष के लिए या स्वयं के लिए अनुनय नहीं होता है। स्वार्थ से परे वे सबके लिये शुभेच्छा रखते हैं। यह जीवन दर्शन अत्यंत समृद्ध है क्योंकि आदिवासी समाज समझता है कि यदि प्रकृति का अस्तित्व बचा रहेगा तभी उनका अस्तित्व बचा रहेगा। आदिवासी समाज को हम आधुनिक रूप में परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं और उनके प्रकृति के इस परस्पर सह-जीवी की समृद्ध अवधारणा को गौण समझते हैं।
सरहुल से पहले कुछ समय तक शिकार और जंगल के फल फूल खाने की मनाही होती है। यहाँ तक ‘दातुन-पतई’ तोड़ने की भी मनाही होती है। इसके पीछे बड़ा सरल सा विज्ञान है।इस समय जीव प्रजनन और गर्भधारण की प्रक्रिया में होते हैं, इसलिए शिकार की मनाही होती है। दातुन-पतई, जंगल के फल फूल अभी कोपल अवस्था में हैं और इन्हें पूर्ण रूप से विकसित होने का समय दिया जाता है। इसलिए इस प्रकार का निषेध गाँव भर में लगाया जाता है।
सरहुल पर्व के समय मुर्गे की बलि दी जाती है। यह एक सांकेतिक प्रक्रिया है किंतु इसके पीछे मजबूत आदिवासी ज्ञान है। प्राचीन काल में जब एक गाँव को बसाने के लिए किसी जंगल के भाग का चुनाव होता था तो आदिवासी समाज उस अनजान क्षेत्र में नरभक्षी जानवर के प्रति आशंकित होते थे। इसलिए एक मुर्गे को उस जंगल में बांध के रख दिया जाता था। अगले दिन जब पुनः जंगल के उस भाग में लोग जाते थे और मुर्ग़ा यथावत मिलता था तो यह माना जाता था कि वह क्षेत्र तुलनात्मक रूप से सुरक्षित था और वहाँ एक नया गाँव बसाया जा सकता है। इसी प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए आज भी सरहुल के समय मुर्गे की बलि दी जाती है और पुरखों को धन्यवाद प्रेषित किया जाता है।
गाँव के निर्माण के क्रम में सरना स्थल का भी स्थान निर्धारित किया जाता था। आदिवासियों की यह एक सामान्य प्रथा थी कि वे गाँव के निकट के जंगलों को जब खेती योग्य बनाते थे तब उसी जंगल के एक भाग को यथावत छोड़ देते थे। इसे एक पवित्र स्थल के रूप में देखा जाता था। इसे ही हम सरना स्थल या अन्य नामों से जानते हैं। यह स्थल साल के पेड़ों का एक समूह है जो आम तौर पर एक आदिवासी गाँव के पास स्थित होता है। ऐतिहासिक रूप से, यह मान्यता थी कि इसी स्थल में सर्वशक्तिमान और अदृश्य शक्तियों का वास होगा। पुरखे और अन्य परोपकारी शक्तियाँ भी इस स्थल से गाँव की देखभाल करेंगे, ऐसा आदिवासी समाज विश्वास करता है। वैज्ञानिक रूप से, यह पवित्र स्थल जो गाँव के पास स्थित थी, वास्तव में समाज की पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) आवश्यकताओं को पूरा करती थी। इस स्थल के पेड़ एवं अन्य वस्तुओं को पवित्र माना जाता था और किसी भी प्रकार के दैनिक उपयोग के लिए यह क्षेत्र निषेध था। इस निषेध ने सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को बनाए रखा। प्राकृतिक विज्ञान में हम पहले से ही पारिस्थितिकी की भूमिका से परिचित हैं जो संपूर्ण मानव के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है।
सरहुल में केकड़ा और मछली पकड़ने की भी प्रक्रिया देखने को मिलती है। धार्मिक अगुवा उपवास के दौरान ही केकड़े और मछली पकड़ते हैं। फिर उन्हें घर के रसोई में ठीक चूल्हे के ऊपर अन्य बीजों के साथ रख दिया जाता है। धान रोपनी से पहले, इन्हें खाद में मिला कर वापस खेत में डाल दिया जाता है। केकड़े का आदिवासी विश्वास और आस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान है। आदिवासी समाज में सृष्टि निर्माण के दौरान केकड़े की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। केकड़े और मछली ऐसे जीव हैं जिनके असंख्य संतान होते हैं। यह मान्यता है कि जिस प्रकार केकड़े और मछली के असंख्य संतान होती हैं उसी प्रकार लगायी गई फसल भी अत्यधिक मात्रा में हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह स्थापित तथ्य है कि केकड़े और मछली खेत की उर्वरकता बनाये रखते हैं। जिस धान के खेत में मछली होंगी उस खेत की धान स्वस्थ होंगी। खेत में उपस्थित मछली, धान के लिए हानिकारिक परजीवियों को अपना भोजन बना लेतीं हैं। यह इकोलॉजिकल विज्ञान में स्थापित सत्य है। केकड़े का सार्वभौमिक सामाजिक महत्व है और सरहुल की प्रक्रिया में यह आराध्य है। विनती के बाद यह भोज्य भी हो जाता है। आदिवासियों के गोत्र व्यवस्था में जिसे हम ‘टोटम’ कहते हैं, केकड़े को किसी भी गोत्र में स्थान नहीं मिला है। आराधना के पश्चात, सभी गोत्र के लोग ऐसे में इसका सेवन कर सकेंगे और पुरखों का साथ उन्हें प्राप्त होगा। टोटम या गोत्र व्यवस्था के अन्तर्गत यदि केकड़ा आता तो किसी गोत्र विशेष के लिए यह निषेध हो जाता।
दशकों पहले धान के खेतों में मछलियाँ, घोंघे और केकड़े मिलते थे। आदिवासियों को इन स्रोतों से समृद्ध पौष्टिक भोजन मिलता था। हालाँकि जब से आदिवासी समुदायों ने रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करना शुरू किया है, पारिस्थितिक संतुलन बाधित हुआ है। अब धान के खेतों में मछलियाँ, घोंघे और केकड़े नहीं मिलते हैं और आदिवासी जीवन से एक बहुत ही पौष्टिक खाद्य स्रोत का सफाया हो गया है।
सरहुल के ठीक बाद लोग अपने खेत के छोटे से भाग में धान के बीज लगाते हैं। यह सांकेतिक होता है और अब हल-बैल चलाने की अनुमति आदि शक्ति और पुरखों से स्वीकृत हो गई है। इस छोटे से खेत के द्वारा ही समाज आने वाले मौसम और बरखा का भी सांकेतिक अध्ययन करता है। उनके लिए मौसम और जलवायु का अध्ययन करने वाला उपकरण एवं विधि यही है।
सरहुल के प्राकृतिक और धार्मिक महत्व के अलावा यह सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है। यह एक ऐसा समय है जब सामाजिक बंधन को पुनः प्रगाढ़ किया जाता है। लोग एक गाँव से दूसरे गाँव अपने संबंधियों के यहाँ जाकर इसे पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। लेकिन आज गाँवों में भी तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। जहाँ यह महापर्व अलग अलग गाँव में अलग दिन मनाया जाता था, अब यह एक ही दिन मनाया जाने लगा है। इससे पारस्परिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अब समाज व्यक्तिगत हो रहा है। स्वयं के घर में पकाने-खाने तक यह महापर्व सीमित हो रहा है। इतना ही नहीं, पारंपरिक वाद्य यंत्र, गीत संगीत भी अब मशीनी होती जा रही है। जब संगीत स्वयं नहीं बजायेंगे और गीत नहीं गायेंगे, तो एक “मूक” समाज का ही निर्माण होगा।
लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं।