आज देश के बुजुर्गों की सबसे बड़ी चिंता देश की दिशा को लेकर है, वे समझ नहीं पा रहे है कि आज देश के कथित ‘‘भाग्य विधाता’’ (राजनेता) देश को किस दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे है? सच कहूं तो आज की राजनीति से ‘देशप्रेम’ व ‘जनसेवा’ जैसे भावना का लोप ही हो गया और आज की राजनीति ‘स्वार्थ’ और ‘व्यक्ति निष्ठा’ की पर्याय बन गई है, अब राजनीति का सीधा मतलब ‘सत्ता’ से हो गया है, साथ ही आज की राजनीति का मुख्य ध्येय भी। आज के राजनेताओं को न देशहित से अब कोई दूर का सम्बंध रहा और न ही देशवासियों से? हाँँ, पांच वर्षों में एक बार अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी के लिए जनता के पास जाना पड़ता है और वे अपनी स्वार्थ सिद्धी के बाद शिखर तक पहुंचाने वाली सीढ़ियों को तोड़कर फैंक देते है, किंतु हाँँ, वे शिखर तक पहुंचाने वाली नई-नई सीढ़ियों की तलाश अवश्य जारी रखते है, जिससे वे शिखर पर बने रह सकें? फिर वे सीढ़ियाँँ चाहे कितनी ही घुमावदार या टेढ़ी-मेढ़ी क्यों न हो? इनका उद्धेश्य सिर्फ अपनी सत्ता को उम्रदराज बनाना होता है, फिर उसके लिए इन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े? इसीलिए कभी वे जाति-सम्प्रदाय का सहरा लेते है तो कभी आरक्षण जैसे घातक कदम का। उन्हें तो अपनी सत्ता को बरकरार रखना है, फिर देश व देशवासी कहीं भी जाएं? अब न तो देश के जनक महात्मा गांधी के सिद्धांत मौजूद रहे और न ही चाचा नेहरू के? आज तो हर नेता के अपने सिद्धांत है और उन्हीं में उसका स्वार्थ निहित होता है, फिर देश या देशवासी कुछ भी करें? कहीं भी जाएं? उसका एक मात्र ध्येय सत्ता को उम्रदराज करना है और उसी की सिद्धी में वे दिनरात जुटे रहते है और अपनी स्वार्थ सिद्धी के नए-नए तरीकें खोजते रहते है।
इन्ही ‘स्वार्थ सिद्धी’ के साधनों में एक है ‘आरक्षण’। महात्मा गांधी ने देश के पिछड़े व आदिवासी वर्ग के लिए इसकी शुरूआत का पं. नेहरू पर दबाव डाला था और उन्होंने इसे लागू किया था, किंतु आज रानीतिक स्वार्थ ने इसका दायरा इतना बढ़ा दिया है कि देश का हर वर्ग ‘आरक्षण’ मांग रहा है और ‘वोट की राजनीति’ हमारे राजनेताओं को इसके लिए मजबूर भी कर रही है, जबकि हमारे संविधान में स्पष्ट उल्लेख है कि 27 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं होना चाहिए, किंतु अब यह आरक्षण देश की आधी आबादी का आंकड़ा छूने की तैयारी कर रहा है।
आज यह सब मुझे महाराष्ट्रª के मौजूदा हालातों के सम्बंध में लिखने को मजबूर कर रहा है, जहां मराठा आरक्षण की मांग ने पूरे राज्य में खलबली मचा रखी है और वहां की सरकार व राजनेता इस मांग के सामने आत्म समर्पण की तैयारी कर रहे है, पिछले बुधवार को सम्पन्न महाराष्ट्रª की सर्वदलीय बैठक में भी सभी दलों को इस मांग के सामने झुकने को मजबूर होना पड़ा। इसका एकमात्र कारण यह कि आज की राजनीति जनता की मांग चाहे वह वैधानिक हो या अवैधानिक अस्वीकार करने का साहस खो चुकी है, उन्हें अपने राजनीतिक स्वार्थ की चिंता है, देश या देशवासियों के भविष्य की नहीं? और यह तय है कि यदि महाराष्ट्रª में मराठाओं को आरक्षण दिया गया तो वहीं का अन्य वर्ग तथा देश के अन्य प्रदेश भी इसी महामारी के शिकार हो जाएगें, तब बैचारे सामान्य वर्ग का क्या होगा? उसका प्रतिशत कितना रह जाएगा? क्या यह किसी ने भी सोचा है?
इस प्रकार आज के हमारे भाग्यविधाताओं के साथ देशवासियों को भी अपनी वाजिब या गैर-वाजिब मांगों पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और वह भी देश व देशवासियों के हित के संदर्भ में? वर्ना राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी की सीढ़ियों की कोई कमी थोड़ी ही है, वे तो समय व स्थिति के अनुसार बनती-बिगड़ती रहती है और अब राष्ट्रªहित की जो भावना का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है, उसे भी जीवित रखना देशहित में सर्वोपरी है, वर्ना राजनीतिक स्वार्थ व सत्ता की दीर्घजीवी भावना इस देश को किस गर्त में ले जाकर खड़ा करेगी, इसकी फिलहाल कल्पना भी मुश्किल है।
लेखक- ओमप्रकाश मेहता